जानिए चीन ने तिब्बत पर कब्जा कैसे किया


तिब्बत जिसे संसार की छत भी कहा जाता है सन् 1950 से चीन के आधीन है। तिब्बत में रहने वाले बौद्ध धर्म को मानते है। चीन ने छल और बल की सहायता से तिब्बत पर कब्जा कर लिया था। आईए जानते है कैसे


तिब्बत अपनी बेवकूफी से फंसा चीन के जाल में

यह बात है जब नेपाल में गोरखा साम्राज्य बहुत ही ताकतवर हुआ करता था। उस वक्त नेपाल और तिब्बत में आए दिन युद्ध हुआ करता था।

नेपाल हमेशा तिब्बत को हरा देता था जिसके कारण तिब्बत को मुवावजे की रकम के रूप में मोटा हर्जाना नेपाल को देना पड़ता था। इन युद्धों का मूल कारण नेपाली चांदी के सिक्के थे।

नेपाल के चांदी के सिक्के तिब्बत में भी चलते थे और दोनों देशों की अर्थव्यवस्था को संभालते थे। बाद में दोनों देशों के बीच इन्हीं चांदी के सिक्कों को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ जो इन दोनों देशों के बीच टकराव का कारण बना। 

 

लगातार हार से परेशान तिब्बत ने चीन से नेपाल के विरुद्ध सहायता मांगी और फिर तिब्बत ने चीन की सहायता से नेपाल को हरा दिया। 

 

सन् 1791 में हुए इस युद्ध में चीन की सेना को बहुत नुकसान हुआ था लेकिन नेपाल इस युद्ध को ज्यादा दिन तक नहीं खींच सकता था क्योंकि इसका असर उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा था 

 

चीन और नेपाल के बीच एक संधि हुई थी। इस संधि की मुख्य बातें यह थीं की नेपाल और तिब्बत दोनों चीन के आधिपत्य को मानेंगे। 

 

नेपाल और तिब्बत के बीच किसी भी विवाद को चीन ही निपटारा करवाएगा। नेपाल के ऊपर कभी कोई विदेशी आक्रमण करेगा तो चीन नेपाल की रक्षा करेगा। 

 

नेपाल और तिब्बत दोनों हर पांच साल में अपने प्रतिनिधि को चीन भेजेंगे ताकि वो चीन को सम्मान राशि दे सकें। 

 

इस तरह तिब्बत को नेपाल से छुटकारा तो मिल गया लेकिन तिब्बत ने अपने गले में फांसी का फंदा खुद लपेट लिया क्योंकि अब चीन ने तिब्बत से जाने से इंकार कर दिया और तिब्बत पर धीरे धीरे कब्जा करने लगा। 

 

हालांकि तिब्बत के भीतर आए दिन चीन के विरुद्ध विद्रोह होते रहे लेकिन चीन बलपूर्वक और हिंसा के दम पर इन विद्रोहों को कुचलने में कामयाब रहा। 

 

चीन ने तिब्बत को दो भागों में विभाजित कर दिया था आउटर तिब्बत और इनर तिब्बत। आउटर तिब्बत दलाई लामा के अधिकार में था। 

 

सन् 1950 में चीन की सेना ने आउटर तिब्बत पर हमला कर दिया और 1951 तक पूरा आउटर तिब्बत अपने कब्जे में कर लिया। 

 

सन् 1959 में चीन के खिलाफ दलाई लामा की अगुवाई में एक विद्रोह भी हुआ लेकिन चीन ने इस विद्रोह का दमन भी आसानी से कर दिया और 14वें दलाई लामा को भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी।  

 

उस वक्त भारत में पण्डित जवाहर लाल नेहरू की सरकार थी और उन्होनें सबसे पहले तिब्बत के ऊपर चीन के दावों पर स्वीकृति दी थी। यह जवाहर लाल नेहरू द्वारा की की सबसे महंगी गलतियों में से एक थी।

 

 

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