जानिए ‘भारत का बिस्किट’ कहे जाने वाले पारले-जी की सफलता की अनोखी कहानी


 

पारले जी एक ऐसा नाम जो भारत में बच्चों से लेकर बड़े तक सब जानते हैं। भारत की आजादी से पहले से हम भारतीयों के दिलों में मौजूद इस ब्रांड ने आजादी के बाद भी अपना जादू कायम रखा और आज भी यह भारत में सबसे ज्यादा खाया जाने वाला बिस्कुट है। 

 

हर जेनरेशन के लोगों की यादें पारले जी के साथ जुड़ी हुई हैं। स्कूल से लेकर कॉलेज तक और नौकरी ढूंढने से लेकर शादी तक कई दशकों तक लोगों की भूख का सहारा बना है ये पारले जी। 

 

अगर आप अपने घर में अपने पापा या बाबा से पारले जी के बारे में पूछें तो वो आपको पारले जी और और उनकी लाइफ से जुड़ी कोई ना कोई कहानी जरूर सुना देंगे। 

 

पारले जी की यादें तो बहुत हैं पर अब जानते हैं की पारले जी की शुरुआत कैसे और कहां हुई और कैसे बना पारले जी दशकों तक  भारत का सबसे अधिक खाया जाने वाला बिस्कुट।

 


कैसे हुई पारले जी की शुरुआत

यह बात है सन् 1928-1929 की और स्वदेशी आंदोलन जोरों पर था। उस वक्त ज्यादातर सामान बाहर से ही आता था और अंग्रेज़ उन सामानों को ऊंचे दाम पर भारत के बाजारों में बेचते थे। 

 

विदेशों से आने वाली वस्तुओं में टॉफी ( कैंडी ) भी थी जिसे भारतीय काफी पसंद करते थे लेकिन इसके दाम बहुत ऊंचे थे जिसके कारण साधारण जनमानस इसे नहीं खरीद पाता था। 

 

यह सिर्फ अमीरों की वस्तु हुआ करती थी। उस वक्त सूरत के एक व्यापारी स्वदेशी आंदोलन से काफी प्रभावित थे और उनका नाम था मोहनदयाल। 

 

उन्होंने सोचा की क्यों ना ये टॉफी भारत में ही बनाई जाय जिससे ये सस्ती भी बनेगी और लोग इसे आसानी से खरीद सकेंगे। 

 

इसके लिए वो जर्मनी चले गए और वहां से कैंडी यानी की टॉफी बनाना सीख कर वापस आ गए। उन्होनें जर्मनी से ही कैंडी बनाने की मशीन खरीद ली और सन् 1929 में मुंबई के पारले में एक पुरानी फैक्ट्री खरीद ली। 

 

इस तरह पारले जी ने अपना पहला प्रोडक्ट बनाया जो था एक कैंडी ऑरेंज बाइट। यह टॉफी नारंगी रंग की थी और धीरे धीरे करके यह टॉफी सबको पसंद आने लगी और धीरे धीरे करके पूरे भारत में प्रसिद्ध हो गई। 

 

कंपनी का स्टाफ मोहन दयाल जी का पूरा परिवार ही था। परिवार के सभी 12 लोग पूरे दिन फैक्ट्री में काम किया करते थे। 

 

पारले कंपनी का नाम उसकी जगह के नाम पर ही पड़ा, चूंकि ये कंपनी पारले एरिया से शुरु हुई थी इसलिए इसका नाम पारले पढ़ गया। धीरे धीरे करके पारले ने दस साल बाद सन् 1939 में बिस्कुट बनाना शुरु किया। 

 

उस वक्त भारत में बिस्किट भी बाहर से आयात किए जाते थे जिसके कारण यह भी बहुत महंगे होते थे और सिर्फ अमीर लोग ही इसे खा पाते थे। 

 

पारले ने सबसे पहले ग्लूकोज बिस्किट बनाने शूरू किए। इस ग्लूकोज बिस्कुट की कीमत बहुत कम थी और पारले ने इसे स्वदेशी कम्पनी का प्रोडक्ट की तरह बाजार में पेश किया। 

 

जिससे लोगों की भावनाएं इस बिस्किट की तरफ जुड़ती चली गईं और बहुत ही कम समय में पारले का यह बिस्किट पूरे देश में बड़े चाव से खाया जाने लगा। 

 

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन् 1940 में यह बिस्किट भारत और ब्रिटिश सैनिकों की पहली पसंद बन गया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय तो इस बिस्किट की मांग इतनी बढ़ गई थी की पारले को उत्पादन तक रोकना पड़ गया था क्युकी उस वक्त इतना गेहूं ही नही था कम्पनी के पास। 

 

इसी वक्त पारले ने साल्टेड बिस्किट क्रैकर मोनाको बनाना शुरू कर दिया। सन् 1947 में देश के विभाजन के समय पारले को अपने ग्लूकोज बिस्किट के उत्पादन को रोकना पड़ा क्योंकि पूरे देश में गेहूं का उत्पादन ढंग से नहीं हो पा रहा था और खाद्यान्न का संकट भी देश पर मंडरा रहा था। 

 

उस वक्त पारले ने गेहूं के बजाय बर्ली से बने बिस्किट बना कर बेचने शुरू कर दिए और इस संकट का अच्छी तरह सामना किया। 

 


पारले जी नाम कैसे पड़ा


पारले जी को सबसे अधिक प्रसिद्धि उसके पीले रंग की पैकेट और उस पर छपी एक प्यारी सी बच्ची के कारण मिली। यह तस्वीर मगनलाल दईया ने बनाई थी जो उस वक्त काफी मशहूर कलाकार थे।

 

पारले की यह पैकेजिंग पहली बार सन् 1960 में आई। इसके बाद इसकी प्रसिद्धि दिनों दिन बढ़ती गई और इसी का फायदा उठाने के लिए कई अन्य कंपनीज भी मैदान में कूद गईं और उन्होनें भी ग्लूको बिस्किट नाम से कई प्रोडक्ट मार्केट में लॉन्च कर दिए। 

 

उस वक्त ( 1980 ) तक पारले ने अपने प्रोडक्ट का नाम का रजिस्ट्रेशन तक नहीं कराया था इस कारण पारले को अपने बिस्किट का नाम पारले ग्लूको से पारले जी करना पड़ा और इस तरह इसका नाम पड़ा पारले जी। 

 

पारले जी में जी का मतलब होता था ग्लूकोज। पारले जी का यह नया नाम भी लोगों को खूब पसंद आया और धीरे धीरे करके इसने पूरे मार्केट पर कब्जा कर लिया। 

 


पारले जी की सफलता का राज


पारले जी की सफलता का सबसे बड़ा कारण इसकी कीमत थी। जिसके कारण यह हर समय डिमांड में बना रहा। इसके अलावा पारले जी की हर जगह उपलब्धता भी इसकी सफलता का एक सबसे बड़ा कारण रही है। 

 

पारले जी ने कभी भी अपनी बिस्किट की कीमतों को बढ़ने नही दिया और मंहगाई के दौर में उसने कुछ ग्राम कम करके भी अपनी बिस्किट की कीमत को वही रखा। जिसके कारण यह हमेशा डिमांड में बना रहा। 

 

इसके अलावा पारले जी ने हमेशा बच्चों को टारगेट किया जैसे सन् 1998 में पारले जी ने शक्तिमान को अपना ब्रांड एंबेसडर बनाया जो की इनके लिए एक बहुत ही अच्छी स्ट्रेटजी साबित हुई।

 

सुपरहीरो शक्तिमान के साथ पारले जी को पूरे भारत में भर भर कर प्यार मिला। इसके अलावा जो भी बच्चों के कार्यक्रम आते उनका उस वक्त स्पॉन्सर पारले जी ही होता था। 

 

इन सब मार्केटिंग स्ट्रेटजी ने पारले जी की मार्केट में पैठ और मजबूत ही की। इन सब के अलावा पारले ने कई अन्य उत्पाद भी लॉन्च किए जो इस वक्त काफी अच्छे बिक रहे हैं। 

 

पारले जी की सफलता का अनुमान आप इस तरह से लगा सकते हैं की आज भी जिन ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली नहीं है, फ़ोन नहीं है, रेल नेटवर्क नहीं है वहां पर भी आपको पारले जी उपल्ब्ध मिल जायेगा।

 

 

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